कुछ चिंतक, बुद्धिजीवी, लेखक, पत्रकार और कार्यकर्ताओं की तरफ से ऐसी दलीलें लगातार आती रहती हैं कि वैश्वीकरण दलित और दूसरी वंचित जातियों और तबकों के लिए फायदेमंद है. कि वैश्वीकरण ने वंचित तबकों के लिए तरक्की के रास्ते खोले हैं और अगर इन नीतियों को इसी तरह लागू किया जाता रहा तो इसकी मदद से उभरी दलित उद्यमिता के जरिए दलितों (और इसी तरह दूसरी वंचित जातियों) की तरक्की मुमकिन होगी और उन्हें उनकी वंचित स्थितियों से मुक्ति दिलाई जा सकेगी. वे यह बात आसानी से नजरअंदाज कर देते हैं कि ठीक यही साम्राज्यवादी वैश्वीकरण देश की दलित, स्त्री, आदिवासी और अल्पसंख्यक आबादियों के लिए तबाही को तेज करनेवाले एक विनाशकारी अभियान के रूप में काम कर रहा है. इसने सांप्रदायिक कत्लेआम, लूट, लैंगिक और जातीय उत्पीड़नों तथा युद्धों को तेज किया है. लेकिन इन्हें फिलहाल जाने भी दें, अभी यह देखना दिलचस्प होगा कि दलित उद्यमिता का वास्तव में वैश्वीकरण से कितना और कैसा रिश्ता है. यह भी कि दलितों का उद्यमिता से रिश्ता क्या है और आधुनिकीकरण का भारत के जातीय यथार्थ से क्या रिश्ता है, जिसके बारे में (पिछले डेढ़ सौ बरसों से अधिक समय से) उम्मीद की जा रही है कि यह भारत के जातीय दुर्गों को ध्वस्त कर देगी. उस आधुनिकता का चेहरा क्या है और जातीय दुर्गों की हालत क्या है. लेखक और कार्यकर्ता आनंद तेलतुंबड़े का यह बेहतरीन आकलन.
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