http://bhadas4media.com/vividh/15758-2013-11-13-06-05-18.html
क्या 'आधार' का कुछ आधार था?
कुछ समय पहले तक यानी सर्वोच्च न्यायालय का महत्त्वपूर्ण आदेश आने से पहले पूरे देश में आधार कार्ड को लेकर बड़ी उथल पुथल मची। कहा गया कि आधार कार्ड हर सरकारी कार्य के लिए जरुरी है। मामले मे सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप करने तक युआईडी (आधार कार्ड) को लेकर सरकार का रवैया अजीबोगरीब बना हुआ था, संसद में सरकार कुछ कह रही थी, मीडिया के सामने कुछ और न्यायालय में कुछ और, सरकार ऐसा क्यूँ कर रही थी यह तो आज भी एक पहेली है। जिसका जवाब न जनता को मिला और न ही मीडिया कुछ तलाश कर पायी। बस सवाल, सवाल और सवाल।
वहीँ सरकार से जब पूछा गया कि यूआईडी का खूफिया विभाग या काउंटर इंटेलीजेन्स से कोई रिश्ता है तो सरकार ने चुप्पी साधे रखी। सरकार यहीं से सवालों के घेरे में आ खड़ी हुई, आखिर सरकार आधार को लेकर रहस्यात्मक मुद्रा में क्यों थी? और सरकार एवं यूआईडीआईए ने विदेशी कंपनियों के साथ हुए समझौते को कई सालों तक छिपा कर क्यों रखा?
हालांकि सरकार की इस योजना पर सर्वोच्च न्यायालय ने पानी फेर दिया है। पर फिर भी यह योजना अपने पीछे कई बड़े और महत्त्वपूर्ण सवाल छोड़ गयी है। इतने सारे पहचान प्रमाण पत्र होने के बाद भी आधार कार्ड की क्या जरुरत पड़ी, यह आज भी हर किसी के लिए सवाल है। कह सकते हैं कि सरकार द्वारा बोझ पर और बोझ लादा जा रहा था।
अगर सरकारी योजनाओं और नीतियों की बात करें तो उसका फायदा जनता को मिल ही रहा था, फिर आधार की क्या आवश्यकता पड़ी? क्या सरकार आम जनता को आधार के माध्यम से बेवकूफ बना रही थी, और अगर ऐसा नहीं था तो 50 हजार करोड़ की लागत वाली इस परियोजना को व्यवहार में लाने से पहले लोकसभा में विधेयक पेश कर स्वीकृति क्यों नहीं ली गयी। जाहिर है इतनी बड़ी परियोजना का मकसद महज सूचना प्रौद्योगिकी से जुड़े लोगों को लाभ पहुंचाना था और कुछ नहीं। विडम्बना तो यह है कि 18 हजार करोड़ रुपये खर्च करके अब तक केवल 22 करोड़ आधार पहचान पत्र ही बनाए गए हैं, कुल जनसंख्या का लगभग 21 फीसदी। महाराष्ट्र, राजस्थान और दिल्ली में तो इस कार्ड को लोककल्याणकारी योजनाओं के लिए अनिवार्य कर दिया गया था।
सरकार आधार को लेकर क्या करना चाहती थी यह तो अब तक साफ़ नहीं हो पाया है, पर एक बात साफ़ है कि सरकार की नीयत साफ़ नहीं थी। जिन तीन कम्पनियों (असेंचर, महिंद्रा सत्यम मोर्फो, और एल-1 आइडेन्टिटी सोलुशन कम्पनी) को आधार कार्ड बनाने का काम सौंपा गया था। उसमे से एल-1 आइडेन्टिटी सोलुशन के टॉप प्रबंधन में वो लोग हैं जिनका सम्बन्ध कहीं न कहीं अमरीकी खुफिया एजेंसी सीआईए और दूसरे सैनिक संगठनो से है. यह अमरीका की सबसे बड़ी डिफेंस कम्पनियों में से एक है जो 25 देशों में फेस डिटेक्शन और इलेक्ट्रोनिक पासपोर्ट आदि जैसी चीजों को बेचती है। अमेरिका के सैनिक विभाग और स्टेट डिपार्टमेंट के सारे काम इसी कम्पनी के पास हैं। इन तीन कंपनियों में से किसी एक का सम्बन्ध विभिन्न विभागों से रहा है जिनमें आर्मी टेक्नोलोजी साइंस बोर्ड, आर्मी नॅशनल साइंस सेंटर एडवाइजरी बोर्ड और ट्रांसपोर्ट सिक्यूरिटी जैसे संगठनों से हैं। यहाँ एक बेहद जरुरी सवाल खड़ा हो जाता हैं कि आखिर सरकार इन कम्पनियों को भारत के लोगों की सारी जानकारी देकर क्या करना चाहती है? क्या सरकार यह चाहती थी कि पूरे तंत्र पर इनका कब्जा हो जाए?
साफ तौर पर देखा जाए तो इस कार्ड को बनाने में हाई लेवल बायोमैट्रिक और इन्फोर्मशन टेक्नोलोजी का इस्तेमाल किया जाता है, क्या इससे नागरिकों की प्राइवेसी का हनन नहीं होता? क्या उनके द्वारा दिए गए आंकड़े सार्वजनिक नहीं होते? और हमारे देश के विकास पर इसका विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता? पर हमारी सरकार शायद इन सबसे अनभिज्ञ थी, तभी तो ऐसा काम करने जा रही थी। पर विकसित देशों को इसका गलत परिणाम दिखने लगा था, तभी तो उन्होंने इसका विरोध किया। देश की आतंरिक सुरक्षा बनी रहे, इसलिए जर्मनी, अमरीका और हंगरी ने अपने कदम पीछे खींच लिये। इंग्लैण्ड में आधार की यही योजना आठ सालों तक चली, पर समय रहते ही सरकार ने कदम उठाया और 800 मिलियन पौंड बचा लिए, जिन्हें विकास के दूसरे कार्यों में लगाया जा सकेगा।
आपको याद होगा महात्मा गाँधी ने अपना पहला सत्याग्रह, 22 अगस्त 1906 में किया था, तब दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने भी ऐसा ही एक क़ानून जारी किया था। जिसका नाम था एशियाटिक लॉ अमेंडमेंट, इसके तहत ट्रांसवाल इलाके के सारे भारतीयों को रजिस्ट्रार ऑफिस जाकर परिचय पत्र बनवाने के लिए अपने फिंगर प्रिंट्स देने थे, सरकार की ओर से इस पत्र को हमेशा अपने पास रखने की हिदायत भी दी और न रखने पर सजा भी तय कर गयी थी। गांधी जी को यह बात नहीं भा रही थी, उन्होंने इसका बड़े पैमाने पर विरोध किया और इस क़ानून को 'काले कानून' की संज्ञा दी। उसी गाँधी के देश में बन रहा था एक और "काला क़ानून", सोचिये अगर आज बापू होते तो क्या करते?
आधार एक ऐसी योजना कही जा सकती है, जिसका व्यवहार में आना किसी भी रूप में देश की सुरक्षा के लिए ठीक नहीं है। क्योंकि इसके बनाये जाने के कानून इतने सरल हैं कि अब तक लाखों अवैध घुसपैठिए भी देश का नागरिक होने की वैधता हासिल कर चुके हैं। दरअसल अगर इसके बनाये जाने पर नज़र डालें तो पता चलता है कि किसी भी व्यक्ति के पास पतें ठिकाने की कोर्इ भी मामूली पहचान है या वह किसी राजपत्रित अधिकारी से लिखवाकर देता है कि वह उसे जानता है, तो महज इस आधार पर आधार कार्ड जारी कर दिया जाता है। तो अंदाजा लगा लीजिये की हमारे देश में एक ही पते पर कितने लोगों का पंजीकरण है। अब यहाँ यह भी सवाल उठता है, कि इतनी बड़ी योजना जिसे सरकार अपनी सभी नीतियों से जोड़ने की बात कर रही थी, को बनाए जाने के लिए इतने सरल नियम?
दरअसल आधार योजना की शुरूआत अमेरिका में आतंकवादियों पर नकेल कसने के लिए हुर्इ थी। 2001 में हुए आतंकी हमले के बाद खुफिया एजेंसियों को छूट दे दी गर्इ कि वे इसके माध्यम से संदिग्ध लोगों की पैरवी करें। वह भी केवल ऐसी 20 फीसदी आबादी की, जो अमेरिका में प्रवासी हैं और जिनकी गतिविधियां संदिग्ध हैं। परन्तु हमारे देश में देखिये यहां इस योजना को पूरी आबादी पर लागू किया जा रहा है। इससे साफ़ हो जाता है कि देश का वह गरीब संदिग्ध है, जिसे रोटी के लाले पड़े हैं। अर्थात हम और आप सरकार की नज़रों में संदिग्ध हैं।
हालांकि इस योजना का विरोध विभिन्न गैर सरकारी संगठन कर रहे थे यहाँ तक कि पी चिदंबरम ने गृहमंत्री रहते इस योजना का पुरजोर विरोध करते हुए इसे खतरनाक आतंकवादियों को भारतीय पहचान मिल जाने का आधार बताया था। लेकिन वित्तमंत्री बनते ही उनका सुर बदल गया और उन्होंने इस योजना को जरुरी बताना शुरू कर दिया। महज आधार संख्या की सुविधा नागरिक के सशक्तीकरण का बड़ा उपाय अथवा आधार नहीं बन सकता। यदि ऐसा संभव हुआ होता तो मतदाता पहचान पत्र मतदाता के सशक्तीकरण और चुनाव सुधार की दिशा में बड़ा कारण बनकर पेश आ गया होता। शायद इसी को ध्यान में रखते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने 23 सितम्बर 2013 को केंद्र सरकार द्वारा आधार योजना को स्वैच्छिक बताने के बाद एक महत्त्वपूर्ण फैसला लेते हुए कहा कि कार्ड नहीं होने की स्थिति में देश के किसी भी नागरिक को परेशानी नहीं होनी चाहिए, क्योंकि यह एक स्वैच्छिक योजना है। जस्टिस बीएस चैहान की अध्यक्षता वाली पीठ ने यह भी कहा कि किसी भी अवैध विस्थापित को आधार कार्ड नहीं जारी किया जाना चाहिए। आधार कार्ड के बिना किसी भी कर्मचारी को वेतन व भत्ते नहीं मिलेंगे के तर्ज को ख़ारिज करते हुए अदालत ने कहा कि प्राधिकरण आधार कार्ड नहीं होने की स्थिति में नागरिक को किसी सेवा या लाभ से वंचित नहीं किया जाएगा।
लेखक अश्विनी कुमार एक निजी कंपनी में कंटेंट राइटर के पद पर कार्यरत हैं. वे विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेखन का कार्य भी करते हैं. उनसे संपर्क ashwanikumar332@yahoo.in के जरिए किया जा सकता है.
On Wed, Aug 7, 2013 at 9:37 PM, Sarbajit Roy <sroy.mb@gmail.com> wrote:
I mean Voters ID Card - EPIC (Electoral Photo ID Card) issued by Election Commission.
The problem is that the CENTRAL Govt in FEDERAL Setup acts like a zamindar, all power no responsibility, everything delegated down to States.
Under the Births Act 1969, every registration for of a Birth at State/District Level is meant to be copied/maintained by a Central Registry.
So my proposal is that the EPIC (Voters Card) / Entry in Electoral Rolls will only be given for those born after 1970 against a copy of the extract from CENTRAL Registry.
About AADHAR what can I say, Dr Subramaniam Swamy in his SLP wants to convert India into a Police State by insisting on UID, Biometrics, fingerprints in voting machine etc. We all know who is behind Swamy for this.
SarbajitOn Wed, Aug 7, 2013 at 5:57 PM, Gaur J K <gaurjk@hotmail.com> wrote:
Dear Mr. S. Roy
Am I to understand that by Voters Card you mean Aadhar Card then NO.
We have experimented with plethora of identity cards-starting the ration card,voters cards based on electoral rolls,passport,Pan Card and now Aadhar. Schemes were started and given up halfway. Does it not show that the Govt. is not sincere in having a true National Identity card. Or may be they are unclear how to tackle migrants from Nepal and Bangladesh.The thinking seems to be to make then residents. extend all benefits and blur the division between a resident and citizen gradually.
Your suggestion for birth certificates from 1969 is sound so far as it applies to people born thereafter. But if you take life expectancy to be around the same figure 69-70, it will leave out about 35% people born before that date. Secondly how sound is the system of reporting births and deaths in rural areas where even a police station is 5-7KM away
Aadhar which was started only for Govt. subsidies for poor people is being extended in scope and coverage. From optional it is being made mandatory without a mandate.
Another worrying aspect is seamless movement of people fro m private sector to govt. and from govt. to private sector without public scruitiny.
Regds
JKGaur
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